- राजेश ओ.पी. सिंह
भारतीय महिलाओं का देश के भीतर सुरक्षा की पहली पंक्ति अर्थात पुलिस बल में प्रवेश आजादी से नो वर्ष पूर्व 1938 में शुरू हुआ, परंतु आज लगभग आठ दशकों के बाद भी इस क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में नाममात्र की बढ़ोतरी और विकास हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 48.46 फीसदी जनसंख्या महिलाओं की है परन्तु पुलिस बल में इनका प्रतिनिधित्व लगभग 7 से 8 फीसदी के बीच ही है। जब पुरुषों द्वारा महिलाओं पर अपराध, हिंसा व शोषण होता है तो उसे किस रूप में दर्ज करना है और दोषी पुरुष के खिलाफ क्या कार्यवाही करनी है, ये सब निर्णय लगभग सभी केसों में पुरुष अधिकारियों द्वारा ही लिए जाते हैं और यहां निर्णय एक पुरुष अधिकारी द्वारा पुरुष के पक्ष में ही लेने की सम्भावना ज्यादा होती है। जैसे कि वर्ष 2015-2016 में “राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे” ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि यौन हिंसा के 99 फीसदी मामलों को पुलिस ने दर्ज ही नहीं किया। वहीं ये माना जा सकता है कि यदि पुलिस बल में महिलाओं की संख्या ज्यादा होती तो निश्चित रूप से यौन शोषण के इतने मामले सामने ही ना आते और मामलों के दर्ज होने की दर भी ज्यादा रहती, जिस से पुरुषों में एक भय बना रहता। अब जब मामले दर्ज ही नहीं हो रहे तो पुरुषों में निडरता पनप रही है और वे बिना किसी डर के महिलाओं के साथ यौन शौषण के साथ साथ हर प्रकार का शोषण कर रहे हैं।
महिलाओं का सार्वजनिक जीवन
परिवार रूपी निजी दायरे से निकल कर सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी अधिकांश समय तक पितृसतात्मक सोच से ही संचालित होती रही है। पितृसता ऐसी विचारधारा है जो महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कमजोर मानती है और यही से लैंगिक भेदभाव शुरू होता है। ये लैंगिक भेदभाव किसी भी व्यक्ति के मन में यकायक उत्पन नहीं होता, यह समाजीकरण की उस निरंतर चलने वाली प्रक्रिया से ही जन्म लेता है, जो बाल्यकाल से ही आरंभ हो जाती है।
इसमें प्रत्यक्ष भूमिका घर व परिवार की और अप्रत्यक्ष भूमिका विद्यालयों की होती है। इस तथ्य की पुष्टि दो महत्वपूर्ण तथ्यों से होती है, पहला अध्ययन “स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय” का है, जो बताता है कि बच्चे के जन्म से ही घर में लिंग आधारित भेदभाव शुरू हो जाता है, जो न केवल बच्चे को मानसिक रूप से कमजोर बनाता है बल्कि उसके मस्तिष्क को भी कुंद कर देता है, नतीजन बच्चा एक ही दायरे में सोचना शुरू कर देता है। वहीं दूसरा अध्ययन “ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2020” का है, जो यह दावा करता है कि विश्वभर में स्कूली पाठ्यक्रम में महिला शख्सियतों की छवियों की संख्या न केवल पुरुषों की तुलना में कम है बल्कि जिन महिला शख्सियतों की छवि दिखाई गई है और पढ़ाई जाती है, वहां उन्हें सिर्फ पारम्परिक भूमिकाओं में ही चित्रित किया गया है।
प्राचीन काल में सिद्धांत के तौर पर देखे तो हमें कई जगहों पर महिलाओं की अच्छी स्थिति का उल्लेख मिलता है, जैसे मौर्य काल में महिला गुप्तचरों के उदाहरण देखने को मिलते है। ज़ाहिर सी बात है कि उस समय में महिलाओं की स्थिति आज से बेहतर रही होगी। मध्यकाल में बाहरी आक्रमणकारियों के कारण महिलाओं की क्रियाशीलता घर की चारदीवारी में सिमटती चली गई और धीरे धीरे पितृसता हावी हो गई।
और पिछली शताब्दियों में हुए श्रम विभाजन में महिलाओं को बच्चों व परिवार की देखभाल के साथ ममता, स्नेह, सेवा वाले गुणों का काम मिला और बाहर के जोखिम भरे कार्यों के साथ साहस, रोमांच, बुद्धिमत्ता जैसे गुणों वाले कार्यों को पुरुषों ने संभाला। इस प्रकार श्रम एवम् लैंगिक विभाजन धीरे धीरे विकसित हुआ, लेकिन समय के बदलते चक्र के साथ लिंग आधारित विभिन्नताओं तथा अन्यायपूर्ण और पूर्वाग्रहों से भरे नियम कानूनों, प्रथाओं व रीति रिवाजों को प्रगतिशील लोगों द्वारा चुनौती दी गई, जैसे प्रारंभ में सती प्रथा जैसी कुरीति को कानूनी तौर पर बंद करवाया गया, बाल विवाह पर रोक लगवाई गई, विधवा पुनर्विवाह विधेयक पास करवाया गया और महिलाओं की शिक्षा को लेकर अनेक अधिकारों को बनाने की कवायद शुरू की गई I
आज महिलाओं को संविधान ने वो सब अधिकार दिए हैं जो पुरुषों को प्राप्त है। इसके बावजूद मार्च 2020 में ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ( यू. एन. डी. पी.)’ की रिपोर्ट “जेंडर सोशल नॉर्म्स इंडेक्स” में पचहत्तर देशों (जिनमें विश्व की लगभग 80 फीसदी आबादी बसती है) का अध्ययन बताता है कि लैंगिक असामनता दूर करने के क्षेत्र में पिछले दशकों में हुई प्रगति के बावजूद अब भी 90 फीसदी पुरुष व महिलाएं ऐसे है जो महिलाओं के खिलाफ किसी ना किसी तरह का पूर्व ग्रह रखते है। इस अध्ययन से एक महत्वपूर्ण बात यह निकल कर आई कि पुरुषों की तरह महिलाएं भी महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रहों से ग्रसित है।
परन्तु इस सब के बावजूद भारत में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए अथक प्रयास जारी है। जिसकी शुरुआत 19 वीं शताब्दी में महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले द्वारा महिलाओं के लिए स्कूल खोलने से हुई, उसके बाद जैस महात्मा गांधी ने भी स्वतंत्रता के संघर्षों में महिलाओं को शामिल करते हुए सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की उपस्थिति से जुड़ी वर्जनाओं को तोड़ा था।
पुलिस बल में महिला
बेशक आज महिलाओं को सारे सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक अधिकार प्राप्त है फिर भी काफी लंबे समय से महिलाओं ने उन्ही पेशों को चुना जिन्हें पितृसतात्मक परिधि के अन्तर्गत महिलाओं के लिए सुलभ माना जाता है जैसे, अध्यापन, नर्सिंग, डाक्टरी, रेडियो प्रचारिका, रिसेप्शनिस्ट आदि। पुलिस तथा सेना में महिलाओं की भूमिका को स्वीकारने में समाज की गति काफी धीमी रही है।
हर कार्य में महिलाओं की भागीदारी को सभी देशों व समाजों द्वारा स्वीकारा जा रहा है। पुलिस बल में महिलाओं की भागीदारी का मुद्दा केवल लैंगिक समानता का मुद्दा नहीं है बल्कि उस कार्यस्थल को लिंग समावेशी बनाने से जुड़ा मुद्दा है, जिसकी जरूरत हर परेशानी में फंसी महिला को पड़ती है।
देश भर की तमाम राज्य सरकारें पुलिस बल में महिलाओं की भागीदारी को लेकर सचेत है तथा आरक्षण व अन्य प्रावधानों के माध्यम से महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करने कि कोशिश कर रही है। परन्तु फिर भी पुलिस बल में महिलाओं की उपस्थिति अन्य कार्यों जैसे अध्यापन, नर्सिंग आदि से काफी कम है, जैसे कि आज भी पुलिस बल में केवल 7.28 फीसदी महिलाएं शामिल हुई है, और उनमें भी 90 प्रतिशत कांस्टेबल जैसे निम्नतम पद पर है, और केवल एक प्रतिशत ही निरीक्षक पदों तक पहुंच पाई है,इसके पीछे क्या मुख्य कारण है ये अपने आप में सोचने का विषय है ।
पुलिस बल चुनौतियां तथा सुधार
1. सबसे मुख्य चुनौती ये है कि आज भी बहुत से
परिवार रूढ़िवादी सोच के कारण महिलाओं को
सेना या पुलिस में भेजने से कतराते है ,क्यूंकि
हरियाणा और राजस्थान जैसे प्रदेशों में इन सेवाओं
से जुड़ी महिलाओं की शादी को लेके काफी
मुश्किल खड़ी होती है ।
2. सबसे बड़ी चुनौती महिलाओं को पुलिस बल में ये
आती है कि थानों में पुरुषों की संख्या ज्यादा होती
है इसलिए महिलाएं अपने आप को कमजोर
महसूस करती है, क्यूंकि वहां होने वाली बातचीत
और वातावरण में लैंगिक पूर्वाग्रह साफ झलकता
है, क्यूंकि अधिकांश पुलिसकर्मी गांवों से आते है
जो पितृसता सोच के अधीन जकड़े होते हैं और
उन्हें उस सोच और अभ्यास से निकलने में लंबा
समय बीत जाता है।
3. सबसे बड़ी चुनौती कार्यस्थलों पर महिला
सुविधाओं का अभाव पाया जाता है जैसे शौचालय
आदि, और ड्यूटी का समय भी निर्धारित ना होना
महिलाओं के लिए चुनौती पेश करता है।
गर्भावस्था में और माहवारी के दौरान पुलिस बल
में शामिल महिलाओं का काफी परेशानियों का
सामना करना पड़ता है।
4. सबसे बड़ी चुनौती ये है कि जब महिलाएं घर के
बाहर सार्वजनिक जीवन में शामिल हो रही है तब
पुरुष घर के कार्यों में कोई योगदान नहीं दे रहे,
जिसके कारण महिला पुलिस कर्मियों को दोहरे
बोझ का सामना करना पड़ रहा है , जिससे उन्हें
अनावश्यक तनाव का सामना करना पड़ता है
जिसका नकारात्मक प्रभाव उनके पारिवारिक
रिश्तों और बच्चों पर पड़ता है।
इन्हीं वजहों से ज्यादातर परिवार अपनी बेटियों और बहुओं को पुलिस बल की नौकरी से दूर रखते है।
समाधान – समाधानों की बात करें तो मौजूदा समय में
कार्यस्थलों पर बेहतर वातावरण व सुविधाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए, कार्यस्थलों को लिंग समावेशी बनाने के लिए समय समय पर वर्कशॉप का आयोजन किया जाना चाहिए। सरकार को निरन्तर प्रयास करने चाहिए ताकि स्थिति में सुधार आए।
हमें ये बात ध्यान में रखनी चाहिए कि समाज के किसी एक वर्ग को लैंगिक सरंचना के कारण नुकसान हो रहा है तो ये पूरे देश व समाज का नुक़सान है न कि केवल महिलाओं का। महिला और पुरुष मिल कर ही एक प्रगतिशील समाज का निर्माण कर सकते हैं।