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महिला शिक्षा में सावित्री बाई फूले का योगदान

राजेश ओ.पी.सिंह

“पौ फटने पर गोधूलि तक,

महिला करती श्रम,

पुरुष उसकी मेहनत पर जीता है, मुफ्तखोर,

क्या इन निकम्मों को मनुष्य कहा जाए” 

( सावित्री बाई फुले की ” क्या उन्हे मनुष्य कहा जाए” नामक कविता से)

सावित्री बाई फुले का जन्म आज ही के दिन (3 जनवरी 1831) में महाराष्ट्र में हुआ था,उनका जन्म उस समय हुआ जब भारत में सभी औरतों के लिए बड़े कड़े नियम थे और उस दौर में बाल विवाह ,सती प्रथा, बालिका भ्रूण हत्या आदि कुरीतियां समाज में उपस्थित थीं। इन सभी में विधवा महिलाओं को स्थिति सबसे नाजुक थी, क्यूंकि बाल विवाह के कारण बहुत बार ऐसा होता था कि जब लड़की 2-3 वर्ष की होती तभी उसके पति का देहांत हो जाता और वो फिर तभी से विधवा हो जाती और सारी उम्र विधवा के रूप में बीताती, विधवाओं को समाज में कोई सम्मान से नहीं देखता था, बेवसी में उनके परिवार वाले ही उन बच्चियों का नाजायज फायदा उठाते, अनेकों बार तो गर्भ पति विधवाओं को आत्महत्या करनी पड़ती या उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया जाता। 

जन्म से ही बच्चियों को घर के कार्यों में सलांगित करना शुरू कर दिया जाता था और महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार बंद थे और ये माना जाता था कि महिलाओं को पढ़ना लिखना नहीं चाहिए क्योंकि इनका कार्य सेवा करना है इसलिए इनके लिए पढ़ना लिखना अपराध माना गया ।  

इसी दौर में जब सावित्री बाई फूले का जन्म हुआ तो वो भी इस से अछूती ना रह पाई और मात्र 9 वर्ष की बाल आयु में ही उनका विवाह ज्योतिबा फूले ( जो कि बाद में अपने कठिन प्रयासों और मेहनत के बल पर अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ मिल कर महान समाज सुधारक के रूप में सामने आए) से कर दिया गया। और जैसे कि यूनेस्को आज भी मानता है कि महिला के विकास में सबसे ज्यादा अवरोधक उसकी कम उम्र में शादी करने से पैदा होता है, जिससे उसका ना केवल शारीरिक बल्कि मानसिक विकास भी नहीं हो पाता , परन्तु सावित्री बाई फूले के जीवन में कुछ अलग ही होना था, उन्हें ज्योतिबा सरीखा पति मिला जो कि खुद भी पढ़ाई कर रहे थे और समाज की बुराइयों को देख और समझ कर उन्हे दूर करने के अपने प्रयास में लगे हुए थे।

ज्योतिबा फुले ने देखा कि महिला शिक्षा ना होने की वजह से समाज को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है, इसलिए महिलाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने प्रयत्न करने शुरू किए जो कि उस समय में बहुत ही चुनौती का कार्य था, परन्तु ज्योतिबा फूले पीछे हटने वालों में से नहीं थे इस सिलसिले में उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री बाई फूले को पढ़ाने लिखाने का सोचा और प्रतिदिन उन्हें सीखाना शुरू किया, बहुत कम समय में ही सावित्री बाई फूले पढ़ना लिखना सीख गई तो ज्योतिबा ने उन्हें अन्य लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया।

1848 में फूले दंपति ने भिड़े वाडा, पुणे में लड़कियों के लिए भारत में प्रथम कन्या स्कूल खोला (इससे पहले केवल अंग्रेज़ों द्वारा संचालित स्कूल ही थे) और स्कूल में लड़कियों को शिक्षा देने का कार्य शुरू किया और बहुत कम समय में इनके स्कूल में वहां के लड़कों के सरकारी स्कूल की संख्या से भी ज्यादा लड़कियां पढ़ने के लिए आने लगी, और ये फूले दंपति के लिए अतिउत्साह उत्पन्न करने वाला क्षण था, इसी से प्रेरणा लेकर बहुत कम समय में फुले दंपति ने स्कूलों की संख्या बढ़ाना शुरू किया और 1852 आते आते इनके स्कूलों की संख्या 18 हो गई और इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने इन्हे सम्मान प्रदान किए। इसके अलावा इन्होने गरीब बच्चों के लिए हॉस्टल भी खोले।

परंतु सावित्री बाई फुले का एक शिक्षक के रूप में सफर बहुत कठिनाइयों भरा रहा, जब उन्होंने स्कूल में लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया तो तथाकथित समाज के ठेकेदारों ने इसका विरोध किया और इन्हे रोकने की हर संभव कोशिश करी परंतु ये जब नहीं रुकी तो ज्योतिबा के पिता को बोला कि महिला शिक्षा समाज के लिए अभिशाप है और ऐसा करने पर आगामी कई पीढ़ियां शोषण का शिकार रहती हैं, इस बात से डर कर ज्योतिबा के पिता ने फूले दंपति को रोकने कि कोशिश की परन्तु जब वो नहीं रोक पाए तो उन्होंने धमकी दी कि या तो घर छोड़ दो या ये पढ़ाने वाला कार्य, तो फूले दंपति ने घर छोड़ना स्वीकार किया परन्तु अपने लक्ष्य के आगे नहीं झुके।

इसके आलावा जब सावित्री बाई फूले स्कूल में जाती थी तो रास्ते में शरारती तत्व उन्हें परेशान करते थे उन पर पत्थर फेंकते यहां तक कि गोबर भी फेंकते थे जिससे उनके कपड़े गंदे हो जाते थे, परंतु सामने से उन शरारती तत्वों से यही कहती कि ” तुम्हारे ये प्रयास मुझे ज्यादा मजबूत करते हैं ,परमात्मा तुम्हारा भला करे” । इस वजह से सावित्री बाई को दो दो साड़ियां साथ लेके जाना पड़ता था ,एक वो पहन कर जाती थी और दूसरी साथ लेकर जाती थी, जिसे स्कूल में जाके पहनती थी क्यूंकि एक साड़ी रास्ते में शरारती तत्व गंदी कर देते थे।परंतु वो इन घटनाओं के बारे में घर पर ज्योतिबा को भी नहीं बताती थी फिर एक रोज़ ज्योतिबा को इस बार में पता चला तो उन्होंने अपने दो दोस्तों को सावित्री बाई के साथ जाने को कहा।

इन संघर्षों का सामना करते हुए समाज में परिवर्तन और नई चेतना लाने के लिए वो कविताएं भी लिखती थी,उनका पहला काव्य संग्रह ” काव्य फूले” नाम से 1854 में जब वो 23 वर्ष की थी तब आया, जैसे  उन्होंने अपनी एक कविता में महिला शिक्षा के बारे में लिखा है:- 

” स्वाभिमान से जीने हेतु, बेटियो पढ़ो लिखो खूब पढ़ो, 

पाठशाला रोज़ जाकर ,नित अपना ज्ञान बढ़ाओ

हर इंसान का सच्चा आभूषण शिक्षा है, 

हर स्त्री को शिक्षा का गहना पहनना है,

पाठशाला जाओ और ज्ञान लो”।

इन्होने शिक्षण पद्धति में भी सुधार करने के प्रयास किए , ज्यादा बच्चों को स्कूल की तरफ आकर्षित करने के लिए छात्रवृत्ति शुरू की। 

इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया गया वो ये था कि इन्होने विधवा महिलाओं के लिए अलग अलग जगहों पर केंद्र खोले जहां पर विधवा महिलाए रह सकती थी, पढ़ाई कर सकती थी और अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी। अर्थात समाज में महिलाओं से सम्बन्धित सभी कुरीतियों को ख़तम करने का हर संभव नए प्रयास किए गए।

1873 में अपने पति के साथ मिल कर “सत्यशोधक समाज” नामक संस्था की स्थापना की जिसका मुख्य लक्ष्य “सत्य चाहने वाले समाज के निर्माण” से था। इस संगठन का मूल सिद्धांत ‘ समानता की सिद्धांत ‘ था।

महिला सशक्तिकरण ,महिला शिक्षा और समाज में समानता और भाईचारे का पाठ पढ़ाने वाली सावित्री बाई फूले का ऋण हम किसी भी प्रकार से चुका नहीं पाएंगे। उनके क्रांतिकारी और अहम योगदान के लिए ना केवल महिला वर्ग बल्कि पूरा भारत और विश्व उनका ऋणी रहेगा।

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