The Womb
Home » Blog » Poems » एक नन्ही परी
Poems

एक नन्ही परी

सना खान
(छात्रा, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली)

हमारे घर आई थी एक नन्हीं परी सारे आंगन में जैसे खुशियां थी सजी।
जाने कितने अरसे बाद थी देखी ऐसी मुस्कान, एक पल की नज़रों ने डाली थी बंजर दिलों में जान।

उसका हसना मानो अंधेरी रातों में रोशनी, उसके मोती जैसे आंसू थे बरसे आसमान जैसे।
उसके चहचाहने में सारा दिन गुज़र गया,कब वो बड़ी हुई वक्त रेत सा फिसल गया।
अब बेटी जवान हो रही थी, सर पर एक फिक्र सवार हो रही थी।
पहले बेटी को अपने पैरों पर उठाना था, देखे ज़माना ऐसा उसका कल बनाना था।
सजदे में जब भी सर को झुकाया था हाथ फैला कर उसकी कामयाबी को पाया था।
बेटी ने खूब नाम रोशन किया,सारे ज़माने में सर फख़्र से ऊंचा हुआ।
अब थी आई बारी बेटी को खुद से दूर करने की, दिल पे पत्थर रखकर उसे घर से रुख़सत करने की।
बहुत ढूंढ कर उसे दुल्हन बनाया था, एक नेक शोहर समझकर उसे बेटी का दूल्हा बनाया था।
वो दिन भी आ गया जब बेटी दुल्हन बनी, पहली नज़र पड़ी तो आंखें मोतियों सी नम हुई।

सब कुछ छोड़कर बेटी घर से रुख़सत हुई, वो आंगन वो घर वो लोग वो गलियां भी रुख़सत हुई।
सोचा ससुराल में जाकर बेटी को घर जैसा प्यार मिले,क्या पता था वह शोहर ही मक्कार मिले।

वह अंधेरी रातों में घुट घुट के रोती रही, कसूर क्या था? कि वह एक बेटी बन पैदा हुई ।
उस घर की ज़िल्लतो ने उसे अधमरा कर दिया वो रोती रही मगर कोई ना सहारा उसे मिला।

Related posts

लैंगिक समानता की उम्मीद

Guest Author

Am I Not God’s Child?

Guest Author

A Women Has Died In Me

Guest Author