By राजेश ओ.पी.सिंह
2019 के अंत में चीन से प्रारम्भ होकर पूरी दुनिया में व्यापक असर डालने वाली कोरोना महामारी का प्रकोप अभी भी जारी है। इसके कारण पूरी दुनिया गहरे उथल पुथल के दौर से गुजर रही है।
भूराजनीतिक परिदृश्य से लेकर सामाजिक और परिदृश्य एवं मानवीय व्यवहार में युगांतरकारी परिवर्तन के संकेत मिल रहे हैं, जो आगे चलकर दुनिया का भविष्य तय करेंगे। कार्यक्षेत्र में “घर से काम” का चलन बढ़ा है तो स्वास्थ्य चिंताओं के कारण लोग आत्मसीमित होते जा रहे हैं। हमारी पीढ़ी के अधिकतर लोगों ने अपने जीवन में इस तरह की महामारी नहीं देखी है, अत: स्वाभाविक रूप से इस लेकर उनमें संभ्रम की स्थिति है।
यदि लैंगिक समानता के परिप्रेक्ष्य में कोरोना महामारी का आकलन करें तो यह बात स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आती है कि इसने दुनिया भर में लैंगिक भेदभाव को और भी बढ़ा दिया है। जैसा कि हर महामारी या आर्थिक संकट के समय होता है कि उसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव महिलाओं पर पड़ता है। कोरोना के समय में अधिकांश महिलाओं ने अपनी नौकरी से हाथ धोया। इस से महिलाओं को बेरोजगारी में ज्यादा वृद्धि हुई है। घरों में काम करने वाली महिलाओं की स्थिति ज्यादा ही खराब हुई क्यूंकि स्वास्थ्य की फिक्र के कारण सभी लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंद कर दिए, इसके अलावा अन्य क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं को या तो नौकरी से निकाला गया या फिर उनके वेतन में भारी कटौती की गई।
महामारी के समय आर्थिक संकट के कारण हर संस्थान और कंपनी में कामगारों की छंटनी हुई उसमें सबसे ज्यादा नुकसान महिलाओं को हुआ। भारत की श्रमशक्ति में पहले से ही कम भागीदारी रखने वाली महिलाओं की तादाद और भी कम हो गई।
‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी’ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की श्रमशक्ति में महिलाओं को प्रतिनिधित्व घटकर महज 11 फीसदी रह गया है। और बेरोज़गारी दर 17 फीसदी हो गई है जबकि पुरुषों में यह 6 फीसदी है। महामारी का पहला चरण खत्म होने के उपरांत अधिकतर पुरुष अपनी नौकरी फिर से प्राप्त करने में सफल हो गए परन्तु केवल आधी महिलाएं ही फिर से अपनी नौकरी प्राप्त कर पाई।
आर्थिक और व्यवसायिक क्षेत्र में महिलाओं को सीमित भागीदारी और उनकी घटती भूमिका का दुष्परिणाम न केवल उन महिलाओं को भुगतना पड़ता है बल्कि उस देश और समाज को भी भुगतना पड़ता है और वहां पर आर्थिक वृद्धि और विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाता।
उदाहरण के तौर पर एक हालिया अध्ययन इस बात की और इंगित करता है कि भारत में लैंगिक भेदभाव को कम करने से उसके सकल राष्ट्रीय उत्पाद में छह से आठ फीसदी तक की वृद्धि हो सकती है। एक अन्य अध्ययन के मुताबिक भारत में महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देकर 2025 तक इसके सकल राष्ट्रीय उत्पाद में 0.7 अरब डॉलर तक इजाफा हो सकता है जो वर्तमान स्थिति के मुकाबले 16 फीसदी अधिक है। इसके अलावा महिलाओं की पूरी क्षमता का उपयोग करने के लिए उधमिता को बढ़ावा देना आवश्यक है जिससे 2030 तक सतत् विकास के लक्ष्य को हासिल करना संभव हो पाएगा।
भारत जैसे विकासशील देशों में सरकारों द्वारा महिलाओं की आर्थिक स्थिति में स्थाई सुधार के लिए निरन्तर प्रयास होने चाहिएं ताकि किसी भी महामारी में उनकी स्थिति इतनी खराब ना हो पाए।