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लैंगिक समानता की उम्मीद

वैशाली मान

(दिल्ली विश्वविद्यालय)

मैंने देखा है समाज बदल रहा है,

धीरे धीरे लैंगिक समानता को स्वीकार कर रहा है।

मगर फिर भी औरत को ही हमेशा आगे बढ़ने से रोका जाता है, 

क्यूं हर छोटी छोटी बातों पर उसे ही टोका जाता है।

घर की दहलीज पार कर जब भी वो बाहर निकलती है, 

तब क्यूं हज़ारों उंगलियां उसी पर उठती हैं।

कपड़ों से उसका चरित्र नापा जाता है, 

तेज़ हंसी और खुल कर बोले तो क्यूं उसको ही कसकर डांटा जाता है।

काम से थक कर घर आने पर खाना उसी को बनाना है,  

जितना भी पढ़ लिख ले आखिर घर उसी को ही क्यूं सजाना है।

पैसा तो उसको भी कमाना है, लड़के के साथ कंधा जो मिलाना है, 

मगर घर आ सेवा कर अच्छी ग्रहणी भी उसे क्यूं कहलवाना है।

उम्मीदों का ,रिवाजों का बोझ उसी को क्यूं उठाना है, 

लैंगिक समानता के बावजूद सब कुछ उसे ही क्यूं निभाना है।

उम्मीद है कि आगे सब बदला जाएगा,

हर क्षेत्र में महिला को बराबर माना जाएगा,

उसकी कुर्बानियों को भी पहचाना जाएगा,

लैंगिक समानता का असली मतलब जब कभी जाना जाएगा।

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