By राजेश ओ.पी. सिंह
2014 में केंद्र में बनी नवी नवेली भाजपा सरकार ने बेटियों की भ्रूण हत्या रोकने और उनकी अच्छी शिक्षा के लिए जनवरी 2015 को हरियाणा के पानीपत शहर से “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” योजना का शुभारम्भ किया । सरकार की इस योजना का मुख्य लक्ष्य लिंगानुपात और लड़कियों की शिक्षा में सुधार करना रखा गया। और इसके लिए बॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को इस योजना को ब्रांड एंबेसडर लगाया गया।
इस योजना के पिछले पांच वर्षो के सरकार द्वारा हाल ही में आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं, इस योजना में केंद्र सरकार ने वर्ष 2015 से 2020 तक कुल 683.05 करोड़ खर्च किए हैं और इनमें से 401.04 करोड़ यानी 58 फीसदी राशि केवल इस योजना के प्रचार पर खर्च की गई है।
महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने हाल ही में राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान बताया कि “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” योजना का मकसद घटते लिंगानुपात तथा पूरे जीवन चक्र में लड़कियों व महिलाओं के सशक्तिकरण से सम्बन्धित मुद्दों का समाधान करना है।
मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा कि सामुदायिक भागीदारी ,जन्म के समय लिंग के चयन पर रोक, बालिकाओं की शिक्षा और विकास में मदद के लिए, सकारत्मक कार्यवाही के माध्यम से बेटियों के अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए सभी स्तरों पर इस योजना के तहत लगातार प्रयास किए गए हैं।
राज्यों के मंत्रियों और अधिकारियों , आकांक्षी जिलों तथा महिलाओं के विरुद्ध अपराध की सबसे अधिक दर वाले 100 जिलों के साथ मंत्री स्तरीय समीक्षा बैठकों का आयोजन किया गया है।
सरकार अपनी इस योजना की सफलता का गुणगान कर रही है, परंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या कोई भी योजना जिसका आधे से ज्यादा वित्तीय हिस्सा केवल प्रचार पर खर्च कर दिए है उसे सफल कैसे माना जा सकता है, क्योंकि हम देखते हैं कि जिन योजनाओं में केवल 10-12 फीसदी वित्तीय हिस्सा ही प्रचार पर खर्च किया जाता है अर्थात 88-90 फीसदी उस योजना को लागू करने और आधार पर उतारने में खर्च किया जाता है वो योजनाएं भी उम्मीद के अनुसार सफल नहीं हो पाती तो केवल 40 फीसदी वित्तीय खर्च से बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना कैसे सफल हो गई।
सरकार का काम होता है कि वो अपनी प्रत्येक योजना को सफल ही बताती है, परन्तु सच्चाई कुछ और ही होती है, जैसे हम देखें की भारत में सभी रोजगार शुदा लोगों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने की बजाए निरन्तर घटती जा रही है। चाहे सामाजिक समानता के नज़रिए से देखें या मानवाधिकारों के नज़रिए से, देश के कार्यबल में महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व ना होना एक गंभीर चिंता का विषय है। इतना ही नहीं, कॉरोना काल में तो सबसे ज्यादा नौकरियां का नुक़सान महिलाओं को हुआ है, महिलाओं को ना केवल नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है बल्कि अनेकों प्रकार की शारीरिक और मानसिक हिंसा का भी शिकार होना पड़ा है।
दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि यदि कोई भी योजना केवल प्रचार से ही कामयाब हो जाती तो शायद आज भारत की तस्वीर कुछ और ही होती।
असल में सरकारों को समझना होगा कि प्रचार मात्र एक आरम्भिक स्तर है, कोई भी योजना तभी सफल हो पाती है जब उसे पूरी इच्छा और ताकत से अमली जामा पहनाया जाए। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना में यदि सरकार द्वारा प्रचार राशि को कम करके उस राशि द्वारा इस योजना को आधार पर लागू करने जैसे बेटियों के जन्म देने वाली महिलाओं के लिए कुछ अलग प्रोत्साहन करना, बेटियों के लिए गुणवत्ता शिक्षा का प्रबंध करना, माता पिता को बेटियों के अच्छे स्वास्थ्य के बारे में जागरूक करने आदि के प्रयास किए गए होते तो परिणाम कुछ बेहतर ही होते।
सरकार के इस योजना के प्रचार में खर्च की गई राशि से हम अनुमान लगा सकते हैं कि सरकार का इस योजना के सफल और असफल होने में ध्यान ही नहीं था, सरकार तो केवल अपना प्रचार करना चाहती थी और किया भी।
बेटियों के नाम पर केवल अपना प्रचार करके सरकार कभी भी अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकती।