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भारतीय महिलाएं और शादी का बंधन

राजेश ओ.पी. सिंह

भारत में आज भी कुल माइग्रेशन का 46.33 फीसदी शादियों के द्वारा हो रहा है और इस माइग्रेशन में 97 फीसदी हिस्सा केवल महिलाओं का है जिन्हे शादी करके एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है I इस माइग्रेशन से इन महिलाओं पर ना केवल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रभाव पड़ता है, बल्कि नई जगह पर रसने बसने में लंबा वक्त लग जाता है और जब तक इन महिलाओं को नई जगह पर रहने में सुविधा होने लगती है तब तक इनमें से लगभग दो तिहाई महिलाएं मां बन चुकी होती है I इस से इन पर दोहरी जिम्मेवारी आ जाती है, ये खुद के बारे में सोचना बन्द कर देती है और सारी उम्र जिम्मेवारियों के भार में गुजार देती है।


शादी की व्यवस्था किस लिए बनाई गई? इस पर अलग – अलग समयों में अलग – अलग अवधारणाएं प्रचलित रही हैं। जैसे 15 वीं – 16 वीं शताब्दी में शादी को प्रकृति का नियम बताया जाता रहा I उसके बाद कुछ विचारकों ने इसे  ‘सम्पत्ति का स्थानांतरण’ कहा।
अभी हाल ही के वर्षों में शादी को ‘बस जाने का’ अर्थात (सेटल) होने का सबसे उपयुक्त रास्ता बताया जाता है, वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों को लगता है कि शादी एक जिम्मेवारी है इसे निभाना ही पड़ता है, कुछ को लगता है कि शादी पसंद और प्यार कि वजह से हो रही हैं। परन्तु शादी के ये प्रचलित प्रतिमान ज्यादा सटीक नहीं बैठ रहे।


अभी हाल ही में “लोकनीति सीएसडीएस” के यूथ स्टडीज ने 2007-2016 तक एक दशक में युवाओं के शादी को लेके विभिन्न अवधारणाओं को खोजने की कोशिश की है तथा इस रिपोर्ट में “लोकनीति सीएसडीएस” ने बताया कि इस दशक में युवा कम उम्र में शादी नहीं कर रहे है, अर्थात युवा अब शादियां लेट कर रहे हैं I इसके पीछे अनेक कारण हो सकते है, इनमें सबसे महत्वपूर्ण है उच्च शिक्षा, उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले युवा जल्दी शादी नहीं कर रहे क्योंकि उन्हें अपना अध्ययन पूरा करने में लंबा समय लग जाता है और जब तक अध्ययन पूरा नहीं होता तब तक वो शादी नहीं करते।


वहीं इस रिपोर्ट से पता चलता है कि लोग शादी अपनी पसंद से या प्यार के लिए नहीं कर रहे हैं, क्यूंकि शादीशुदा लोगों में केवल 6 फीसदी और बिना शादी वालों में ये आंकड़ा केवल 12 फीसदी है, अर्थात केवल 6 फीसदी लोग ऐसे है जिन्होंने अपनी मर्ज़ी से अपनी पसंद से शादी करी है, वहीं केवल 12 फीसदी लोग ऐसे है जो अपनी पसंद से शादी करना चाहते है।
दूसरी तरफ शादियों में जाति और धर्म का सबसे ज्यादा प्रभाव देखने को मिला है I केवल 33 फीसदी युवा ही अंतर-जातिय विवाह को सही मान रहें हैं, और दूसरे धर्म मे शादी को लेके ये आंकड़ा केवल 28 फीसदी है, अर्थात लगभग दो तिहाई युवा केवल अपनी जाति और धर्म मे शादी करना चाहते हैं I इन आंकड़ों से हम अनुमान लगा सकते है कि आजादी के 70 वर्षों के बाद भी भारतीय युवा जातिय पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाया है।


बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर ने 1936 में अपने “एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट” नामक भाषण में जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए ‘अंतर-जातिय’ शादियों को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना था, परंतु उनकी बात पर किसी ने आज तक अमल नहीं किया है। इन आंकड़ों से भी स्पष्ट होता है कि भारतीय युवा अपनी पसंद या प्यार के लिए शादी नहीं कर रहा, क्यूंकि प्यार कोई जाति या धर्म देख कर नहीं होता।

भारत में सबसे ज्यादा शादियां जिम्मेवारी निभाने और बस जाने के लिए ही रही है, जैसे कि शादीशुदा लोगों में 84 फीसदी युवाओं ने घर वालों की मर्ज़ी से अरेंज मैरिज की है। वहीं दूसरी तरफ शादी ना करने वाले युवाओं में ये आंकड़ा 50 फीसदी है जो अपने घर वालों की मर्ज़ी से अरेंज मैरिज करना चाहते हैं।


“लोकनीति सीएसडीएस” की रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि 2007 में 51 फीसदी पुरुष व 37 फीसदी महिलाएं शादी नहीं करना चाहती थी, वहीं ये आंकड़ा दस वर्षों बाद, 2016 में, पुरुषों में 61 फीसदी और महिलाओं में 41 फीसदी तक पहुंच गया है I अर्थात पिछले एक दशक में 10 फीसदी पुरुषों और 4 फीसदी महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है जो शादी नहीं करवाना चाहते।


महिलाओं में ये वृद्धि पुरुषों के मुकाबले ढाई गुना कम हुई है, इसके पीछे के कारणों को देखें तो पाएंगे कि महिलाओं को निर्णय निर्माण में भागीदारी बिल्कुल ना के बराबर मिली हुई है, जिस से महिलाएं अपनी शादी का फैसला नहीं ले पाती और ना ही घर वालों को शादी ना करने के लिए मना पाती है। समाज और परिवार का भी महिलाओं पर पुरुषों के मुकाबले ज्यादा दबाव रहता है कि वो शादी करे।


वहीं दूसरा कारण ये भी हो सकता है कि महिलाओं की पुरुषों के मुकाबले संख्या कम है, इसलिए ये स्वभाविक है कि शादी ना करने वाले पुरुषों की संख्या ज्यादा ही होगी क्योंकि उनके लिए लड़कियां ही नहीं है तो शादी कहां से करेंगे।


तीसरा शिक्षा की भी एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जैसे कि जो बिल्कुल अनपढ़ है उनमें 94 फीसदी लड़कियों की शादी हुई है, वहीं प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाओं में ये आंकड़ा 87 फीसदी है। दसवीं तक कि पढ़ाई करने वाली 62 फीसदी लड़कियों ने शादी की है और ग्रेजुएशन और उस से उपर की पढ़ाई करने वाली लड़कियों में ये संख्या केवल 42 फीसदी है, अर्थात ज्यादा पढ़ी लिखी लड़कियां शादी ना करने का फैसला लेने में सक्षम हुई है, उन्होंने अपने घर वालों को इस निर्णय के लिए या तो सहमत किया है या फिर विद्रोह किया है।


एक दूसरी अवधारणा ये भी है कि जिन लड़कियों ने 10 वीं के बाद स्कूल छोड़ दिया उनकी शादी हो गई या फिर इसका उल्टा कि जिनकी शादी हो गई उन्होंने स्कूल छोड़ दिया।
परन्तु फिर भी रिपोर्ट के मुताबिक ये साफ हुआ है कि मौजूदा वैश्वीकरण और इंटरनेट के दौर में युवाओं में शादी का महत्व कम हुआ है। 2007 में 81 फीसदी युवा शादी को महत्वपूर्ण मानते थे जो कि 2016 में घट कर 52 फीसदी रह गया है, अब केवल 52 फीसदी युवा ही है जो शादी को महत्वपूर्ण मानते है परन्तु इसमें कहीं भी ये पता नहीं चलता कि इन 52 फीसदी में कितनी संख्या महिलाओं की है।


अंत में हम ये ही कह सकते है कि भारत में आज भी शादियां लड़कियों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जा रही हैं, आज भी शादियां प्यार या पसंद से नहीं हो रही हैं, आज भी जाति और धर्म शादी के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, आज भी समाज के दबाव में लड़कियों की शादी हो रही हैं।


इस स्थिति को बदलने के लिए हमें सभी को मिल कर कार्य करना होगा, समाज में एक नई अवधारणा पैदा करनी होगी जिस से लड़कियों पर शादियों के दबाव को कम किया जा सके और उन्हें उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया जा सके।

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